क्या लिखें? कितना लिखें? कब तक लिखें। कलम कांपने लगी हैं अब, जिस स्याही को रक्त की तरह बहना था वह आंसुओं की तरह सूख चुकी है। चीखों को सुन-सुनकर कानों के परदे फट गए हैं। आत्माएं मर चुकी हैं और उनका पुनर्जन्म भी नहीं हुआ। अगर यह सत्य नहीं है तो द्रौपदी के चीरहरण से लेकर तेलंगाना की आग तक क्या कुछ बदल दिया हमने? कितनी बार कोशिश की उस विचार को आग लगा देने की जिसने सोचा कि किसी स्त्री को बिना सहमति के भी छुआ जा सकता है।
आग तो लगी लेकिन उन विचारों में नहीं, उन ज़िन्दा देहों में जिन्होंने समाज पर भरोसा कर लिया था। सती-प्रथा की आग से बची औरतें अब जघन्यता की आग में जलने लगी हैं। लेकिन उन देहों से उठते धुएं से समाज के फ़ेंफ़ड़े तो ख़राब हो चुके हैं लेकिन दम घुटना बाक़ी है। इस सभ्यता का विनाश अभी बाक़ी है।
गाहे-बगाहे निर्भया सामने आ ही जाती है। कभी किसी गांव में, कभी शहर में, कभी उसकी मांग में सिंदूर होता है तो कभी वो किसी आंगन में खेल रही होती है। लेकिन वह खु़द को भूलने नहीं देती और लगे कि हम भूल रहे हैं तो उसका फिर शिकार कर लिया जाता है। इस बार वह तेलंगाना में थी अपनी ख़राब स्कूटी के पास। वह डॉक्टर थी और उसे लगा कि वह जानवरों का इलाज करेगी।
भोले रहे होंगे उसके माता-पिता जो बताया नहीं कि इंसान ही तो है सबसे बड़ा जानवर। हमारे यहां तो पहले से ही बता दिया जाता है लड़कियों को कि कब लौटना है, कहां जाना है, क्या पहनना है, किससे मिलना है और किससे बचना है। लेकिन जिनसे बचना है वे भी तो आदम के बच्चे हैं तो उनके मां-बाप क्यूं नहीं बता देते कि किसी को नहीं मारना है, किसी को गंदी नज़रों से नहीं देखना है, किसी का बलात्कार नहीं करना है, किसी को ज़िंदा नहीं जलाना नहीं है। क्यूं नहीं किसी पिता ने वसीयत में नैतिकता के वो काग़ज़ नहीं सौंपे जिनमें लिखा होता है कि
“लड़कियां माल नहीं होतीं, वो देवी भी नहीं होतीं वो तो बस लड़कियां होती हैं जिनकी इज़्ज़त और हिफ़ाज़त उतनी ज़रूरी है जितनी तुम्हारी। उनकी आवाज़ पुलिस थाने की फ़ाइल में बंद हो जाने के लिए नहीं है और न ही उनकी रौशनी संसद भवन तक किए कैंडल मार्च के लिए है। वह सिर्फ़ देह मात्र नहीं है बल्कि तुम्हारे अस्तित्व का वह हिस्सा हैं जिससे तुम्हें जीवन मिला है। तुम मत बैठो उनके लिए धरने पर, ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। तुम तो बस वह कहो उनसे जो कैफ़ी आज़मी ने कहा कि
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे”
अपने साथ चलने को कहो, उसे उठाओ और बराबर लेकर आओ। सिर्फ़ शिक्षा और अधिकारों में ही नहीं वरन् सुरक्षा में भी। किसी लड़की का जॉब कर लेना तो उसका मजबूत हो जाना नहीं है। वहां वह निर्भर तो नहीं है लेकिन निर्भय भी तो नहीं है। मैट्रो से लेकर बस स्टैण्ड तक, मजदूरी से लेकर मजबूरी तक, घर से लेकर दफ़्तर तक क्या तुम उसे निडर कर पाए अब तक ? अगर नहीं तो हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है कि वह हर शाम ख़ुद को आईने में देखकर सवाल करे कि वह कहां मजबूर है, वह कहां ग़लत है।
हमारे शायर तो कई साल पहले यह कह गए थे कि साथ चलो। फिर हमने क्या सबक लिए, क्या सीखा और जो सीखा उसका क्या किया। बरअक्स, हमने सिर्फ़ एक ऐसा सिस्टम तैयार किया जो शमशान में बैठे किसी विक्षिप्त के समान है। जो हर चिता पर ताली बजाता है, रोटियां सेंकता है और उसकी राख से अपना तिलक भी कर लेता है। यह वही सिस्टम है जो महाभारत की उस भरी सभा में मौन रहा जब किसी स्त्री की अस्मिता तार-तार हो रही थी। तब में और आज में फ़र्क़ सिर्फ़ यह रहा कि अब कम-अज़-कम बयानों में अफ़सोस व्यक्त कर दिया जाता है और फ़ेसबुक, ट्विटर पर संवेदनाएं। लेकिन दुशासन अपने जगह पर अडिग है और कृष्ण अब प्रकट नहीं होते।
यह समाज ऐसा ही रहेगा लड़कियों, यह सिस्टम नहीं बदलेगा। तुम्हें ख़ुद ही उठना होगा, तुम ही बरतना एहतियात और मजाज़ की एक बात गांठ बांध लो
तेरे माथे पर ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
क्या लिखें? कितना लिखें? कब तक लिखें। कलम कांपने लगी हैं अब, जिस स्याही को रक्त की तरह बहना था वह आंसुओं की तरह सूख चुकी है। चीखों को सुन-सुनकर कानों के परदे फट गए हैं। आत्माएं मर चुकी हैं और उनका पुनर्जन्म भी नहीं हुआ। अगर यह सत्य नहीं है तो द्रौपदी के चीरहरण से लेकर तेलंगाना की आग तक क्या कुछ बदल दिया हमने? कितनी बार कोशिश की उस विचार को आग लगा देने की जिसने सोचा कि किसी स्त्री को बिना सहमति के भी छुआ जा सकता है।
आग तो लगी लेकिन उन विचारों में नहीं, उन ज़िन्दा देहों में जिन्होंने समाज पर भरोसा कर लिया था। सती-प्रथा की आग से बची औरतें अब जघन्यता की आग में जलने लगी हैं। लेकिन उन देहों से उठते धुएं से समाज के फ़ेंफ़ड़े तो ख़राब हो चुके हैं लेकिन दम घुटना बाक़ी है। इस सभ्यता का विनाश अभी बाक़ी है।
इंसान ही तो है सबसे बड़ा जानवर
गाहे-बगाहे निर्भया सामने आ ही जाती है। कभी किसी गांव में, कभी शहर में, कभी उसकी मांग में सिंदूर होता है तो कभी वो किसी आंगन में खेल रही होती है। लेकिन वह खु़द को भूलने नहीं देती और लगे कि हम भूल रहे हैं तो उसका फिर शिकार कर लिया जाता है। इस बार वह तेलंगाना में थी अपनी ख़राब स्कूटी के पास। वह डॉक्टर थी और उसे लगा कि वह जानवरों का इलाज करेगी।
भोले रहे होंगे उसके माता-पिता जो बताया नहीं कि इंसान ही तो है सबसे बड़ा जानवर। हमारे यहां तो पहले से ही बता दिया जाता है लड़कियों को कि कब लौटना है, कहां जाना है, क्या पहनना है, किससे मिलना है और किससे बचना है। लेकिन जिनसे बचना है वे भी तो आदम के बच्चे हैं तो उनके मां-बाप क्यूं नहीं बता देते कि किसी को नहीं मारना है, किसी को गंदी नज़रों से नहीं देखना है, किसी का बलात्कार नहीं करना है, किसी को ज़िंदा नहीं जलाना नहीं है। क्यूं नहीं किसी पिता ने वसीयत में नैतिकता के वो काग़ज़ नहीं सौंपे जिनमें लिखा होता है कि
लड़कियां माल नहीं होतीं, वो देवी भी नहीं होतीं
“लड़कियां माल नहीं होतीं, वो देवी भी नहीं होतीं वो तो बस लड़कियां होती हैं जिनकी इज़्ज़त और हिफ़ाज़त उतनी ज़रूरी है जितनी तुम्हारी। उनकी आवाज़ पुलिस थाने की फ़ाइल में बंद हो जाने के लिए नहीं है और न ही उनकी रौशनी संसद भवन तक किए कैंडल मार्च के लिए है। वह सिर्फ़ देह मात्र नहीं है बल्कि तुम्हारे अस्तित्व का वह हिस्सा हैं जिससे तुम्हें जीवन मिला है। तुम मत बैठो उनके लिए धरने पर, ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। तुम तो बस वह कहो उनसे जो कैफ़ी आज़मी ने कहा कि
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे”
अपने साथ चलने को कहो, उसे उठाओ और बराबर लेकर आओ। सिर्फ़ शिक्षा और अधिकारों में ही नहीं वरन् सुरक्षा में भी। किसी लड़की का जॉब कर लेना तो उसका मजबूत हो जाना नहीं है। वहां वह निर्भर तो नहीं है लेकिन निर्भय भी तो नहीं है। मैट्रो से लेकर बस स्टैण्ड तक, मजदूरी से लेकर मजबूरी तक, घर से लेकर दफ़्तर तक क्या तुम उसे निडर कर पाए अब तक ? अगर नहीं तो हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है कि वह हर शाम ख़ुद को आईने में देखकर सवाल करे कि वह कहां मजबूर है, वह कहां ग़लत है।
सिस्टम शमशान में बैठे किसी विक्षिप्त के समान है
हमारे शायर तो कई साल पहले यह कह गए थे कि साथ चलो। फिर हमने क्या सबक लिए, क्या सीखा और जो सीखा उसका क्या किया। बरअक्स, हमने सिर्फ़ एक ऐसा सिस्टम तैयार किया जो शमशान में बैठे किसी विक्षिप्त के समान है। जो हर चिता पर ताली बजाता है, रोटियां सेंकता है और उसकी राख से अपना तिलक भी कर लेता है। यह वही सिस्टम है जो महाभारत की उस भरी सभा में मौन रहा जब किसी स्त्री की अस्मिता तार-तार हो रही थी। तब में और आज में फ़र्क़ सिर्फ़ यह रहा कि अब कम-अज़-कम बयानों में अफ़सोस व्यक्त कर दिया जाता है और फ़ेसबुक, ट्विटर पर संवेदनाएं। लेकिन दुशासन अपने जगह पर अडिग है और कृष्ण अब प्रकट नहीं होते।
यह समाज ऐसा ही रहेगा लड़कियों, यह सिस्टम नहीं बदलेगा। तुम्हें ख़ुद ही उठना होगा, तुम ही बरतना एहतियात और मजाज़ की एक बात गांठ बांध लो
तेरे माथे पर ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।